Ayurvediya Panchkarma Chikitsa : “पंचकर्म” शब्द से ही इसका अर्थ स्पष्ट है कि ये पाँच प्रकार के विशेष कर्म हैं। ये शरीर से मलों व दोषों को बाहर निकालते हैं। पंचकर्म चिकित्सा * आयुर्वेदीय चिकित्सा का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग हैं, अनेक बार देखा जाता है कि कई प्रकार की औषधियों का सेवन करने पर भी रोग बार–बार आक्रमण करते रहते हैं।
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इन रोगों से बचाव व इनके उन्मूलन के लिए शरीर के मलों व दोषों को बाहर निकालने वाली (Eliminition Therapy) जो संशोधन की चिकित्सा–प्रक्रिया (Method) है, उसे ही पंचकर्म चिकित्सा कहा जाता हैं। पंचकर्म चिकित्सा से पूर्व जिन कर्मों को किया जाता है, उन्हें पूर्वकर्म कहा जाता है, पूर्वकर्म के अन्तर्गत संशमन एवं संशोधन चिकित्सा की जाती है, उसमें स्नेहन और स्वेदन का विशेष महत्त्व है। Ayurvediya Panchkarma Chikitsa के पाँच कर्म निम्नलिखित हैं-
- वमन (Emetic therapy)
- विरेचन (Purgative therapy)
- नस्य (Inhalation therapy or Errhine)
- अनुवासन वस्ति (A type of enema )
- निरूह वस्ति (Another type of enema )
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सुश्रुत आदि कुछ आचार्यों ने नस्य के स्थान पर ‘रक्तमोक्षण‘ (Blood letting therapy) को पंचकर्म में गिना है। इन सभी प्रकार के कर्मों को करने से पहले यह देखना आवश्यक होता है कि रोगी शारीरिक और मानसिक दृष्टि से उसके योग्य है भी या नहीं? अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि हो सकती है। पंचकर्म से पहले जो कुछ तैयारी की जाती है, उसे ‘पूर्वकर्म‘ तथा बाद में जो कुछ सावधानी व पथ्य–अपथ्य का ध्यान रखना होता है, उसे ‘पश्चात् कर्म‘ कहा जाता है। रोगी के अनुसार विशेष प्रकार की औषधियों का चयन करके ही विशेष विधि ( प्रक्रिया) का प्रयोग किया जाता है। अब आगे इन पाँचों कर्मों का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है।
- कफ के निर्हरण अर्थात बाहर निकालने के लिए (Elimination ) वमन ( Emesis ) सर्वश्रेष्ठ है।
- पित्त के निर्हरण के लिए विरेचन ( Purgation ) सर्वश्रेष्ठ है।
- वात के निर्हरण के लिए एनिमा या बस्ति (अनुवासन और आस्थापन, दोनों) सर्वश्रेष्ठ है।
- शरीर में कोमलता / मृदुता (Tenderness ) लाने के लिए स्वेदन (Fomentation) सर्वश्रेष्ठ है।
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Ayurvediya Panchkarma Chikitsa : आयुर्वेदीय-पंचकर्म चिकित्सा :-
1 . वमन (Emetic therapy) :-
जिस चिकित्सा में उल्टी या वमन (Vomiting) लाने वाली औषधियों का प्रयोग करके आमाशय की शुद्धि की जाती है, उसे वमन कर्म कहते हैं। इस चिकित्सा का प्रयोग अधिक गर्मी व अधिक सर्दी के समय को छोड़कर करने का विधान है।
वमन कर्म उन व्यक्तियों के लिए उपयोगी है, जो कफज और पित्तज रोगों से पीड़ित हैं। इन रोगों के अन्तर्गत खाँसी, श्वास (अस्थमा), जुकाम, कफज ज्वर, जी मिचलाना, भूख न लगना, अपच, टाँसिल्स (गलशुण्डी), रक्ताल्पता (एनीमिया), विष का प्रभाव, शरीर के निचले अंगों से रक्तस्राव, कुष्ठ एवं अन्य चर्मरोग ( खुजली, विसर्प आदि), गाँठे व गिल्टी, सूजन, नाक की हड्डी का बढ़ना, मूत्ररोग, ग्रहणी रोग, अतिनिद्रा, तन्द्रा (Drowsiness), शरीर में किसी अंग की वृद्धि, मिर्गी, उन्माद, पतले दस्त, कान का बहना, चर्बी बढ़ना व इससे उत्पन्न रोग, दुष्ट प्रतिश्याय (साइनस) तथा नाक, तालु व होंठ का पकना आदि हैं।
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2. विरेचन (Purgative therapy) :-
जब आँतों में स्थित मल को गुदा द्वार से बाहर निकालने के लिए औषधियों का प्रयोग किया जाता है, तो इस क्रिया को विरेचन कहते हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण संशोधन (Purgation) कर्म है। इसका प्रयोग सामान्यतः शरद् ऋतु में किया जाता है, परन्तु यदि रोग गम्भीर हो, तो किसी भी ऋतु में इसका प्रयोग किया जा सकता है।
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सामान्यतः शरीर में शुद्धि लाने के लिए तो विरेचन–क्रिया का प्रयोग किया ही जाता है, इसके अतिरिक्त पित्त का प्रकोप, आम (आधा पचा अथवा बिल्कुल ना पचा भोजन) से उत्पन्न रोग, अफारा और कुष्ठ जैसे भयंकर चर्म रोगों को दूर करने के लिए भी विरेचन – कर्म का प्रयोग किया जाता है। इसके सम्यक् प्रयोग से इन्द्रियों में शक्ति, बुद्धि में ताजगी, पाचकाग्नि में वृद्धि तथा रक्त, रस आदि । धातुओं और शारीरिक बल में स्थिरता आती है।
3. नस्य (Inhalation therapy or Errhine) :-
सिर, नेत्र, कान, नाक व गले के रोगों में जो चिकित्सा नाक द्वारा ली जाती है, वह नस्य अथवा शिरोविरेचन कहलाती है।।
नस्य शिर से कफ आदि दोषों को बाहर निकालता है। इसके लिए तीक्ष्ण प्रभाव वाले तेलों अथवा तीक्ष्ण औषधियों के रस या क्वाथ से पकाए गए तेलों का प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त औषधियों के रस या चूर्ण का प्रयोग भी किया जाता है। नस्य का प्रयोग कफज, ऊर्ध्वजत्रु (नाक, कान, गला व सिर) के रोगों में एवं शिरःशूल, स्वरक्षय, पीनस, प्रतिश्याय, शोथ (सूजन), अपस्मार (मिर्गी), कुष्ठ जैसे भंयकर चर्मरोग व अरुचि में किया जाता है ।
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4. अनुवासन वस्ति (A type of enema ) :-
जिस चिकित्सा – कर्म में गुदामार्ग द्वारा औषधि प्रविष्ट कराई अनुवासन जाती है, उसे बस्ति – कर्म कहते हैं। जिस बस्ति – कर्म में केवल घी, तैल आदि स्नेह द्रव्यों अथवा क्वाथ आदि के साथ अधिक मात्रा में स्नेह पदार्थों का प्रयोग किया जाता है | उसे ‘अनुवासन‘ अथवा ‘स्नेहन बस्ति‘ कहा जाता है।
इसके प्रयोग से कोष्ठ की शुद्धि के साथ–साथ स्निग्धता और स्थानीय कोमलता भी आती है। अनुवासन – बस्ति से शरीर में पुष्टता आती है, शक्ति, स्वास्थ्य व आयु में वृद्धि तथा रंग में निखार आता है।
5. निरूह वस्ति (Another type of enema ) :-
जिस बस्ति कर्म में कोष्ठ की शुद्धि के लिए औषधियों के क्वाथ, दूध और तैल का प्रयोग किया जाता है, उसे निरूह बस्ति कहते हैं; क्योंकि यह बस्ति शरीर में वात आदि दोषों और धातुओं को सम स्थिति में स्थापित करने में सहायक है, अत: इसे आस्थापन बस्ति भी कहते हैं।
वातज रोग, उदावर्त (वायु का ऊर्ध्व गमन), वातरक्त (गठिया), विषम ज्वर (मलेरिया), उदर रोग, पेट में अफारा, मूत्राशय में पथरी, शूल, अम्लपित्त (Hyperacidity), मन्दाग्नि, मूत्र में रुकावट, हृदय रोग, प्रमेह, रक्त प्रदर तथा कब्ज जैसे रोगों से पीडित व्यक्ति को निरूह बस्ति देनी चाहिए ।
नोट :- पंचकर्म की विभिन्न क्रियाओं का प्रयोग रोग एवं रोगी की अवस्था के आधार पर चिकित्सकीय परामर्शानुसार ही करें।
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